




श्रीडूंगरगढ़ लाइव…3 मार्च 2023।प्रिय पाठकों,
श्रीडूंगरगढ़ जनपद की कतिपय दिलचस्प ऐतिहासिक जानकारियां श्रीडूंगरगढ़ के साहित्यकार, पत्रकार एवं इतिहासविद डाॅ चेतन स्वामी हमारे साथ नियमित साझा कर रहे है।
विकासवादी सोच रखते थे–महाराजा डूंगरसिंह
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इतिहास में रुचि रखनेवालों के लिए यह एक दिलचस्प तथ्य हो सकता है कि श्रीडूंगरगढ़-कालू और छतरगढ की ऐतिहासिक पारस्परिकता थी। आप जानते हैं–महाराजा लालसिंह (महाराजा डूंगरसिंहजी तथा छोटे भाई गंगासिंहजी के पिता) छतरगढ़ ठिकाने के राजवी थे। छतरगढ़ के ठिकाने का प्रमुख केन्द्र कालू गांव रहा और श्रीडूंगरगढ़ तहसील के कई गांव भी छतरगढ़ ठिकाने के अंतर्गत रहे। श्रीडूंगरगढ़ तहसील का ऐतिहासिक गांव रीड़ी भी छतरगढ़ ठिकाने का ही एक गांव रहा। वस्तुतः महाराजा गजसिंह से इस परम्परा का सूत्रपात हुआ। गजसिंह के पुत्र राजसिंह हुए और राजसिंह ने थोड़े से ही अर्से राज किया। फिर उनके नन्हे बालक प्रतापसिंह को गद्दी पर बैठाया गया और संरक्षक बने चाचा सूरतसिंह। बालक प्रतापसिंह की मृत्यु के बाद सूरतसिंह ही अगले महाराजा रहे। सूरतसिंह के बाद उनके पुत्र रतनसिंह और रतनसिंह के पुत्र सरदारसिंह महाराजा हुए। सरदारसिंह निस्संतान गुजर गए। तब फिर एक बार गद्दी पर किसे बैठाया जाए-यह समस्या उत्पन्न हुई तो तय किया गया कि गजसिंह के कुल से ही किसी व्यक्ति को बीकानेर का अगला महाराजा बनाया जाए, तब लालसिंहजी के पुत्र डूंगरसिंह का बीकानेर महाराजा के रूप में राज्यारोहण हुआ। डूंगरसिंह के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपना यश डूंगर ( पर्वत) की तरह अटल रखा। अंग्रेज सरकार भी उनकी कार्य पद्धति का लोहा मानती थी और प्रशंसक थी। डूंगरसिंह- महाराजा गजसिंह की सातवीं पीढी में थे। कहा जाता है कि डूंगर सिंह को महल-मकान-मंदिर बनवाने का बड़ा शौक था। श्रीडूंगरगढ़ की सुंदर बसावट उनकी सूझबूझ का ही परिणाम कही जा सकती है। रेल, बिजली, नहर लाने की योजनाएं वे प्रारंभ कर चुके थे। बीकानेर रियासत में सन 1886 में वे बिजली ले आए, जबकि अन्य रियासतें इससे वंचित थी। स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भी वे उन्नति करने लगे थे। काशी, कोलायत, हरिद्वार, द्वारिका जैसे तीर्थ स्थलों पर धार्मिक मंदिर आदि बनवाए। महाराजा को कुए बनवाने का बड़ा शौक था। छह पट्टा जमीन पर रिफाया आम कुए बनवाने की परम्परा आपने ही शुरू की। मात्र बतीस वसंत ही देख पाए डूंगरसिंहजी- पर बहुत काम कर गए। श्रीडूंगरगढ़ बसाने के मात्र पांच वर्ष बाद ही उनका निधन हो गया। सन 1882 मे श्रीडूंगरगढ़ बसा।










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