श्रीडूंगरगढ़ लाइव…7 अप्रेल 2023। प्रिय पाठकों,
श्रीडूंगरगढ़ जनपद की कतिपय दिलचस्प ऐतिहासिक जानकारियां श्रीडूंगरगढ़ के साहित्यकार, पत्रकार एवं इतिहासविद डाॅ चेतन स्वामी हमारे साथ नियमित साझा कर रहे है।
श्रीडूंगरगढ़ पर भक्ति सुधा रस बरसानेवाले संत श्रीकृष्णानंदजी महाराज
श्रीडूंगरगढ़ के श्रद्धालु जनों पर निस्पृह संत श्री कृष्णानंदजीमहाराज की अपरिमित कृपा रही। श्रीडूंगरगढ़ के बहुत से घरों में विगत साठ वर्षों से वे श्रद्धापूर्वक पूजे जाते हैं। उन्होंनें यहां के एक बड़े वर्ग को परमात्म प्रेम की ओर उन्मुख किया तथा जीवन में सदाचार और कर्तव्य निष्ठा का पाठ पढाया। उनकी बातें बड़ी युक्तिपूर्वक हुआ करती थीं। उनके सम्पर्क में आनेवाला उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। वे पूरे भारत में भ्रमणशील रहते। श्रीडूंगरगढ़ जब भी पधारते तो उनके अनुयायी अधिक से अधिक रोकने का आग्रह रखते।
श्री कृष्णानंद जी का गृहस्थ नाम पंडित मोहनलाल गौड़ था तथा उनका जन्म रतनगढ़ के पंडित भोजराज गौड़ के आंगन में 10 अक्टूबर 1907 को हुआ। उनकी माता ब्राह्ममुहूर्त में उठकर भजन करती। यही संस्कार माता से पुत्र में आ गए। वे प्रातः दस बजे तक नाम स्मरण करते। यों तो 24 घंटे ही उनका अभ्यास नाम स्मरण का था। साधू जीवन में उन्होंने अपने श्रद्धालुओं को भक्ति विषयक वही बातें बताई जो वे स्वयं करते थे। थोथे उपदेश में उनका तनिक भी विश्वास नहीं था।
42 वर्ष की अवस्था में उन्होंने पूर्ण रूप से गृहस्थ का त्याग कर दिया और संन्यास जीवन अपना लिया। संन्यास ग्रहण करने के दो वर्ष बाद उनका सुआगमन श्रीडूंगरगढ़ में हुआ। सन 1951 में जब वे पहली बार यहां पधारे तो बड़ी संख्या में लोग इनके शिष्य बनने के लिए उद्यत हो गए, पर उन्होंने कहा कि मेरे आप सब बंधु हैं। आपकी श्रद्धा मेरी बजाय परमात्मा में अधिक हो। वे गौसेवा और नैमितिक सत्संग पर सर्वाधिक बल देते। उनकी इस प्रेरणा से श्रीडूंगरगढ़ में अनेक जगह सत्संग होना प्रारंभ हुआ। श्रीडूंगरगढ़ में उनका निवास अधिकांशतया गोपाल गौशाला में होता। गोपाल गौशाला में अक्षय निधि ट्रस्ट की स्थापना उन्हीं के सत्प्रयास से हुई।
सामान्य जन के कल्याणार्थ उन्होंने कतिपय सदाचार नियमों का निर्माणकिया तथा सुखी गृहस्थ जीवन जीने के लिए उन नियमों को उपयोगी बताया। यों तो पूरे शहर के सैकड़ों लोग उनके अनुयायी बने मगर आडसरबास के हर घर में उनके प्रति श्रद्धा भाव बने। इन्होनें सभी को हरि संकीर्तन से जोड़ा। उन्होंने अपने लिए कहीं भी आश्रम की स्थापना नहीं की। उनको अपना नाम नहीं पुजवाना था। उनका आदेश था कि कहीं पर मेरा स्थान कायम नहीं किया जाए।
78 वर्ष की अवस्था में 16 अप्रेल 1985 को उनका गोलोक वास दिल्ली में हुआ। उनके श्रद्धालुजनों ने उनका अग्नि संस्कार हरिद्वार में गंगा किनारे किया। प्रति वर्ष गुरु पूर्णिमा के दिन उनके श्रद्धालुजन अपने यहां सत्संग का आयोजन करते हैं। ऐसे संत के सान्निध्य से श्रीडूंगरगढ़ की धरा पावन हुई।










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