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म्हारो श्रीडूंगरगढ़….

 

 

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श्रीडूंगरगढ़ लाइव…3 फ़रवरी 2023 ।  प्रिय पाठकों,

श्रीडूंगरगढ़ लाइव हर पाठक को एक ऐसा मंच प्रदान करता है जिसमे पाठक अपने शब्दों में अपनी बात और अपनी खबर दे सकते है। इसी कड़ी में आज श्रीडूंगरगढ़ की बेटी समाजसेवी मीनू बल्देवा(गट्टाणी) ने अपनी मातृभूमि के प्रति अपने उद्गार व्यक्त किये है।

म्हारो श्रीडूंगरगढ़

कुछ नहीं चाहिए तुझसे ए मेरी उम्र ए रवां,
मेरे दोस्त मेरा बचपन, मेरे जुगनू, मेरी गुड़िया और मेरा गाँव लौटा दे ।
श्रीडूंगरगढ़ हमारा देदीप्यमान गांव। चारों तरफ से सुनहरे टीलो से घिरा, कटोरीनुमा बसा श्री डूंगरसिंहजी का बसाया, एक दूसरे को समकोण काटती गलियाँ। कच्चे पक्के मकान व कस्बाई सुंदरता को समेटे हवेलियाँ, जो न जाने कितनी ऐतिहासिक व प्राकृतिक घटनाओं की दृष्टा और गवाह हैं। कालूबास, बिग्गा बास, आडसर बास व मोमासर बास इसके स्वरूप में चार चाँद लगाये हुए हैं। जनसंख्या व क्षेत्रफल लगातार विस्तृतता की ओर बढ़ते हुए राष्ट्रीय उच्च मार्ग -11 से जुड़ा हुआ। अपने गर्वीले ऐतिहासिक पृष्ठों से लदा हमारा प्यारा सा गाँव। आइये चलते हैं, इसकी सुहानी सैर पर।

ये दौलत भी लेलो ये शौहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,
मगर मुझको लौटा दो मेरा वो बचपन,
वो बारिश का पानी वो कागज की कश्ती”!

सुर्दशन फाकीर साहब की ये पंक्तियाँ बयाँ कर रही है, उन सुनहरी यादों को जो अनमोल हैं। श्रीडूंगरगढ की बेटियों का निबंध संस्मरणात्मक होने की एक अहम वजह है। उस समय लाडलियों के बड़े होने , समझने व संभलने , संवरने के दिन आते ही वो परायी हो जाया करती थी। जिनमे अधिकांश
का ब्याह गाँव से बाहर हुआ करता या फिर वह प्रवासी हो जाती। दहेज में परिवार के स्नेह व दुलार के साथ ले जाती थी, वह अनगिनत अनमोल यादों को। ये चितेर आज भी बेटियों और बहू रानियों के हृदय में रची बसीं व सहेज कर रखी होगी?
उस मासूम उम्र में नहीं परवाह थीं शहर की उन्नति की, विकास की, प्रगति की, क्योंकि “ओ मरुधर ( श्रीडूंगरगढ़ ) म्हारो देस म्हांनै प्यारो लागै राज” ये ही हमारे भाव व दुनिया थे।

बचपन की बातें
हमारा घर बिग्गा बास में स्थिति है फूलो वाला घर के नाम से प्रसिद्ध रहा है। घर में सोलह किस्म की प्रजातियों के गुलाब के फूलों से घर महका रहता था। शहतूत का एक बड़ा पेड़ भी था जिसके शहद से मीठे फलों को मैं अमीर पट्टी बाजार में बाँटा करती थी। वे बचपन के दिन कितने सुहाने थे। अनेक प्रकार के खेल खेला करते थे। कोडामलजी डागा के पाटा व बरामदे तक लुक मीचणी चलती। मालजी की बोरटी के बोरिया, चुँपां , छिंका ‘ गट्टा गोला , निसरनी ,आँधों घोटो, पच्चीसिया , सतौलियो, ये हमारे रोजाना के खेल थे। हम करतीं थीं गुड़िया का ब्याह। जो लाल रंग की चिरमी से निर्मित होती थी। घूघरी बनती,वही प्रसाद था। फिर उनको धोरों में जलाना।
एक शरारती समूह था हमारा। बेबली, सतियो श्रीनिवास , विद्या शांति व कलावती जो शाम होते ही निकल पड़ता था। कपड़े धोने की थापी से क्रिकेट व चंदा मांग कर गेंद लाकर खेलने का आनंद भला अब कहाँ है? अनगिनत यादें है उस बचपन की ।
अब वक्त कहाँ जो याद करें,
उन भूली बिसरी बातों को,
उन सौंधी सौंधी रातों को,
जब सोने से पहले छत को भिगोया करते थे,
चादर में लेटे लेटे कुछ ख्वाब पिरोया करते थे
जब आधी रात को बारिश की बूंदे गिरती थीं ,
हम नींद में ही बिस्तर को लेकर अन्दर भागा करते थे।
आज मेरे गाँव की गलियाँ सूनी हो गई हैं। घर वीरान हैं, शहरी होने की होड़ है। वह रौनक, वह सहजपन,वह जीवंतता कहीं खो सी गई है। सब कुछ रस्मी होने लगा है।

विद्यालय की यादें
बाल -भारती उस समय का सर्वोत्तम स्कूल रहा है। गर्व होता है, हमारा शिक्षण वहाँ से हुआ। वहाँ का शिक्षण स्तर व अनुशासन अन्य स्कूलों के मुकाबले अच्छा रहा। विभिन्न प्रतियोगिताओं में अव्वल आया करते। यहाँ से शिक्षित छात्र छात्राएं कई क्षेत्रों में प्रतिभाशाली रहे हैं और आज भी श्रीडूँगरगढ़ का नाम रोशन कर रहे हैं। कुछ दिन पूर्व ही भूतपूर्व विद्यार्थियों ने श्री रमेशचन्द्रजी सक्सेना व संगीत अध्यापक सागरजी भाटी का सम्मान किया। वह क्षण वे दृश्य हम सभी के लिए प्रेरणादायी व ऐतिहासिक रहे।
पेटी में बस्ता डाले, चोटी में फीता डाले
मोजों ( जुराबों ) में रबड़ लगाये जूतों पर चॉक लगाये
अपनी ही धुन में चलना ,जब चाहे सबसे लड़ना ‘ ना डरना ना झुकना। बाल भारती तेरी याद,आज भी सुकून दे जाती ।
बाल भारती की वर्तमान स्थितियों में हम सभी भूतपूर्व विद्यार्थी सुधार करने का यत्न करें तो वह एक महान कार्य होगा।

प्रिय स्थल श्रीडूंगरगढ पुस्तकालय
हमारा सौभाग्य रहा कि हमारे घर के निकट स्थित रहा, ज्ञान का यह पावन मंदिर। नित्य नई पत्रिकाएं,साहित्य, कामिक्स, सर्वोत्तम डाइजेस्ट क्या कुछ नहीं मिल जाता था, यहां से। अध्ययन के अलावा रेडियो हमारे मनोरंजन का साधन था। विविध भारती पर गाने, बी बी सी लंदन पर देश विदेश की खबरें, अमीन सयानी की बिनाका गीतमाला, आज भी इन कार्यक्रमों की याद आती है। इनका बेसब्री से इंतजार रहता था। आज इंटरनेट ने ये सारी खुशियाँ समेट दी।
गोपालदासजी के पेड़े,गुलाब जामुन , महामाया के रसगुल्ले, दादाजी के साथ अंगुलि पकड़ कर चमचमाते पीतल के कटोरदान में लाया करते थे। जिनकी मिठास आज भी जुबान पर है। अब न दादाजी हैं और न पेड़ों में वह स्वाद। टेवू काका की दूकान पर पान खाने जाना व काका को कत्था ज्यादा डालने की अपील करना, जिससे होंठ लाल हो जाने का चाव याद आती है तो स्वतः मुस्कान आ जाती है। कितना आत्मीय सा था, उस समय।
हनुमान धोरा उस समय का विशिष्ट पिकनिक स्थल रहा। गोठों का आयोजन होता था। किसी की शादी या प्रवासी के बाहर से आने की खुशी मे दाल बाटी चूरमा और ताँगे की सवारी कैसे बिसर जायें ! फिर ग्रामोफोन पर तेज गाने मन में रोमांच भर देता था। आज उनकी जगह फार्म हाउसों ने ले ली है। प्राकृतिक परिवेश खो सा गया है। शादियों के दिनों में बैंड बाजों कुरजाँ(सुपनो )  कितना कर्ण प्रिय व भाव विभोर कर देने वाला था  सूती थी रंग महल में सूती नै आयो रे जंजाळ कुरजाँ ए म्हांरी sss दूर से शाँत वातावरण में ये स्वर शहद की तरह घुल जाया करते थे। वह हमारा गाँव अब शहर की पगडंडी पर चल पड़ा है। आज भी आँखे उस प्यार, स्नेह के पलों को ढूंढती है। लेकिन अब अनजान से लोग दिखाई देते हैं।
उत्सव, त्यौहार,व सामाजिक गतिविधियाँ
वहाँ का हर दिन उत्सव सा लगता था।
दीवाली दीवाली थी, होली का रंग सुनहरा था,
सच पूछो तो त्यौहारों का असली और गहरा रंग तब ही था”,
अब वक्त कहाँ जो याद करें, भूली बिसरी बातों को*”
कभी रात्रि में कुरदांतली पक्षियों की आवाजें, तो कभी जम्मे- जागरण की स्वर लहरियां गजानंद गवरी के नंदा sss “हमारे लिए लोरियों का काम करते थे। फागण में लुहारों का डफ पर वो राजा बल के दरबार मची होळी रे ssss कार्तिक में माँ के साथ जल्दी स्नान कर नए वस्त्र पहन ” चरणामृत की चाह, गूजरी नित उठ दर्शन पाय भजनों की श्रृंखला। मुहर्रम के ताजिया, झूलेलाल की झाँकी, दशहरा की झाँकियाँ, रामदेव जी गोगाजी व जोहड़े पर एकादशी मेला , गोपाष्टमी का मेला, नवरात्रा में कीर्तन के मखाने, झंवरों के मंदिर में सावन के झूलों में वो स्वचालित बैटरी से खड़ताल बजाती मीराँ, वो कृष्ण का यशोदा को मुख में त्रिलोकी दर्शन कराना हर साल कौतुहल का विषय थे और सभी लुभाते थे। गणगौर का मेला, फोगड़ा रा फुलड़ा लाना, घुड़ला हमारे बाल मन में स्फूर्ति व उमंग भर देता था। अनगिनत यादें हैं !

हमारा गाँव धर्म स्थली रहा है । महेश्वरी भवन, बाहेती भवन में प्रायः महा पुरुष व संतो का आगमन प्रायः होता रहता था। पगला बाबा, रामसुख दासजी का आगमन, आचार्य श्रीतुलसी का चौमासा आज भी याद है। घर के बाहरी कमरों को दादाजी द्वारा सेवा हेतु आस पास के लोगों के लिए सुव्यवस्थित कर दिया करते। पूरे श्रीडूंगरगढ़ में उत्सव का माहौल रहा करता। बचपन से संगीत में रुचि थी, कोकिला कंठी श्रीमती कमला भादानी जी के साथ अनेक ढालों के गायन में प्रतिभागी बनने का सुअवसर मिला। *ए धरती तूं बणजा परस सुहावणी, पगलिया तो था पर पड़ै है भगवान रा।*
अनेक भामाशाहों ने सदैव उत्साह से कई उत्कृष्टता के कार्य किये हैं व निरंतर करते ही जा रहे हैं। साहित्यक क्षेत्र में सदैव शिरमौर रहा है हमारा गाँव। अनेक कवि व साहित्यकारों व कलाकारो को इस धरती माँ ने अपनी कोख से सँवारा और वे विश्व स्तर पर हमारे गाँव का नाम रोशन कर रहे हैं। राजनीतिक गतिविधियाँ हमारे लिए गौण थीं। ताँगों पर चुनाव प्रचार के समय बिल्ले व झंडियां बटोर लेने तक सीमित था। गाँधी पार्क में तेज आवाजों में लाउडस्पीकर पर आवाजें हमें रोमांचित करती थी।

ऐतिहासिक व प्राकृतिक घटनाएँ
सुनहरे टीलों की सुंदरता ने फिल्मकारों को आकर्षित किया, अनेक फिल्मों का फिल्मांकन यहाँ हुआ। श्रीडूंगरगढ़ शताब्दी समारोह में गणपत लाल डांगी वं मीना जी का सांस्कृतिक समारोह, कवि सम्मेलन आज भी याद है। प्राकृतिक आपदाएं कई आती रही हैं, ओला वृष्टि व आँधी तथा अकाल की विस्मयकारी यादें है।

आइये श्रीडूंगरगढ को स्वर्ग बना दे – बदलाव प्रकृति का नियम है । गाँव चहुँ ओर निरंतर प्रगति व विस्तार कर रहा है। आज विशेष विनम्र निवेदन है हमारे सभी राजनीतिक महानायको से, गांव के भामाशाहों से, नागरिकों से आइये गांव को एक हो कर, इसकी उन्नति में चार चाँद लगा दें। साहित्य कला व संस्कृति को पुरजोर सम्मान दें।
मैं जब तक गाँव ना जाऊँ,भीतर का खालीपन नहीं जाता

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