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बॉलीवुड का रहा है बीकानेर से पुराना नाता….

श्रीडूंगरगढ़ लाइव…1 फ़रवरी। 2023 ।

बीकानेर के संगीतकार गुलाम मोहम्मद के संगीत को कौन भूल सकता है…..

– “इन्ही लोगों ने ले लिन्हा दुपट्टा मेरा”
-“चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो”
-“आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे”
-“ठाडे रहियो ओ बांके यार रे”
-“मौसम है आशिकाना, ऐ दिल कहीं से उनको ऐसे में ढूंढ लाना”
-“चलते- चलते यूंही कोई मिल गया था सरे राह”

1972 में प्रदर्शित फिल्म ‘पाकीजा’ के ये गाने आज भी जहन में घूमते हैं। उस वक्त इस फिल्म के संगीत ने तहलका मचा दिया था। हर शहर,हर गली में इसके संगीत ने धूम मचा दी थी।
इस फिल्म के गानों में तबले का ठेका कानों में मिश्री घोलता है। ‘पाकीजा’ का संगीत संगीत की दुनिया का एक अमिट अध्याय है।
इतनी पाकीज़गी और दिलकश अंदाज में संगीत इससे पहले फिल्म संगीत में पेश नहीं किया गया।
“इन्ही लोगों ने ले लिन्हा दुपट्टा” में लता जी की आवाज़ की खनक और कहरवा, चार मात्रा में तबले की ग़मक का द्वय अपने चरम पर है।
मांड की अपनी चिर-परिचित राजस्थानी शैली में कंपोज किये गये”ठाङे रहियो ओ बांके यार” में स्वर की तड़प देखते ही बनती है।
यमन कल्याण और भूपाली का संमिश्रण लिये “चलते चलते यूं ही मिल गया था” में पार्श्व संगीत और आवाज़ की अप्रतिम जादूगरी का बेमिसाल संमिश्रण है।
“आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे” में रात का आतंक और प्यार की आजमाइश दोनों को संगीत ने लता जी की आवाज़ में मूर्त कर दिया।

ऐसे अमर संगीत के संगीतकार थे
जनाब गुलाम मोहम्मद साहब

   लता मंगेशकर के साथ गुलाम मोहम्मद साहब

गुलाम मोहम्मद साहब का जन्म 1903 में बीकानेर के गांव नाल में हुआ।
इनके प्रथम गुरु इनके पिता नबी बग्स जी ‘तबला वादक’ थे।
इनकी प्रारंभिक शिक्षा हैदराबाद के गुलाम रसूल खां के यहां हुई। इनसे इन्होंने तबला, पखावज एवं ढोलक की शिक्षा ली।
कम उम्र में ही गुलाम मोहम्मद साहब ने लाहौर-पंजाब के न्यू अल्बर्ट थियेटर में नौकरी की तथा वहीं नृत्य निर्देशक बन गए।
उसके बाद बीकानेर की जे बी कंपनी के साथ कई जगह प्रोग्राम देते रहे। इसी दौरान अपने फन में माहिर हो गये।
सन् 1924 में बोम्बे चले गए। वहां सात-आठ साल संघर्ष करने बाद ‘राजा भरतरी में तबला वादक के तौर पर मौका मिला। यहीं से इन्हें प्रसिद्धि मिली।12 साल तक संगीतकार नौशाद साहब और अनिल विश्वास जी को असिस्ट करते रहे। इनके संगीत में नौशाद साहब और अनिल विश्वास जी का असर नजर आता है।
1947 में बनी फिल्म ‘टाईगर क्वीन’ में स्वतंत्र रूप से संगीतकार बने।
उसके बाद अजीब लड़की,रेल का डिब्बा, दिले नादान, जिंदगी देने वाले सुन, काजल,परायी आग,मेरा गीत,पगड़ी ,दिल की बस्ती,पारस, मांग जैसी फिल्मों में संगीत दिया। इन फिल्मों का संगीत सीरियस मूड पर बना हुआ होता था।
फिल्म पगड़ी से फास्ट मैलोडी मूड का संगीत भी देना शुरू किया।
अलंकरण उनके संगीत का अटूट हिस्सा थे।
नौशाद साहब और अनिल विश्वास जी की तरह अपनी संगीत रचनाओं में हिंदुस्तानी संगीत की बारिकियों, राग-रागिनियों का उपयोग अवश्य करते थे।
उन्होंने अपने संगीत में ओरक्रेस्ट्रा को कभी हावी नहीं होने दिया।
फिल्म संगीत में मटके को बाकायदा एक वाद्य यंत्र के रूप में इस्तेमाल करने वाले पहले संगीतकार गुलाम मोहम्मद साहब ही थे।
गुलाम मोहम्मद साहब की यह बदकिस्मती रही कि पाकीजा की सफलता को वे नहीं देख पाये।
उनका निधन 17 मार्च,1968 को हो गया था जबकि यह फिल्म 1972 में रिलीज हुई।
उनके निधन के बाद इस फिल्म के कुछ गानें नौशाद साहब ने रिकॉर्ड किए।
यह पूरी उम्मीद थी कि फिल्म फेयर अवार्ड पाकीजा को ही मिलेगा पर ऐसा नहीं हुआ। गुलाम मोहम्मद साहब के साथ मरने के बाद भी अन्याय हुआ। फिल्म फेयर पुरस्कार फिल्म बेईमान के संगीत के लिए शंकर जयकिशन को मिला।
इस फिल्म के सहायक अभिनेता प्राण को भी फिल्म फेयर पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी किन्तु उन्होंने यह कहकर यह पुरस्कार ठुकरा दिया कि पाकीजा फिल्म का संगीत इस पुरस्कार का हकदार था।
गुलाम मोहम्मद साहब के बाद मुंबई में उनकी चौथी पीढ़ी तक संगीत साधना में लीन है।

लेखक :- मदन सोनी ,सरदारशहर

प्रेषक :- डॉ. चेतन स्वामी,श्रीडूंगरगढ़

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