



श्रीडूंगरगढ़ लाइव…1 मार्च 2023।प्रिय पाठकों,
श्रीडूंगरगढ़ जनपद की कतिपय दिलचस्प ऐतिहासिक जानकारियां श्रीडूंगरगढ़ के साहित्यकार, पत्रकार एवं इतिहासविद डाॅ चेतन स्वामी हमारे साथ नियमित साझा कर रहे है।
बंद हो गई–ल्हासें
आज से पचास–साठ वर्ष पूर्व बङा चाव था ल्हासों का। ल्हासें दो प्रकार की हुआ करती थीं- एक वैयक्तिक और दूसरी जनोपयोगी। आप को जानकर आश्चर्य होगा कि जोहड़-तालाबों की कालर ( मिट्टी ) निकालने और पाळ पर डालने का काम तथा पायतण साफ करने का काम ल्हासिये ही करते थे और बड़ी सुघड़ता से। वैसा सुन्दर और सलीकेदार काम आज के मजदूर नहीं कर पाते। बाद में जो फैमिन के काम खोले गए, वे ल्हासों की तर्ज पर ही खोले गए, पर सरकारी होने के कारण उसमें निकम्मापन भर गया। जोहड़ की सफाई में तो आसपास के गांवों के कई लोग चाव से बिना बुलाए काम करने आ जाते, परोपकार का काम जो ठहरा। ल्हास का मतलब होता था कि भोजन के बदले काम। ल्हास में अधिकांश गुड़ की लापसी बनाई जाती, साथ में देसी घी। भोजन के बर्तन ल्हासिये अपने साथ लाते। सातों जाति के लोग भाग लेते, पर छुआ-छूत भी थी। अंत्यज जातियां इसका बुरा भी नहीं मानती। पानी के शानदार स्रोत जोहड़ों को अब हमने अनुपयुक्त मान लिया है। अब इन की सफाई भी दूर की कौडी हो चुकी है।
ल्हास का दूसरा रूप, खेतों में देखने को मिलता था। कोई किसान के जब समय पर निनाण नहीं निकलता अथवा वक्त पर लावणी नहीं होती तो वह ल्हास करता और एक ही दिन में ल्हासिये सारा काम निपटा देते। ल्हासें सहकार का सुन्दर माध्यम थीं। चाव से लोग, एक दूसरे के हित में काम करते। पर, अब समय क्रूर हो चला है। कोई किसी के काम आना पसंद ही कहां करता है।










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