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इतिहास के पन्नो से…रियासत काल में पट्टेदार के दायित्व

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श्रीडूंगरगढ़ लाइव…15 फ़रवरी 2023।प्रिय पाठकों,
श्रीडूंगरगढ़ जनपद की कतिपय दिलचस्प ऐतिहासिक जानकारियां श्रीडूंगरगढ़ के साहित्यकार, पत्रकार एवं इतिहासविद डाॅ चेतन स्वामी हमारे साथ नियमित साझा कर रहे है।

पट्टेदार के दायित्व
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बीकानेर के शासकों ने जब अपने कुल के लोगों, रिश्तेदारों को पट्टे में गांव देने प्रारंभ किए तो उसके पीछे मंशा उन पट्टेदारों को मातहत रखने की होती थी। बेशक पट्टेदार अपने पट्टे के गांव या गांवों से राजस्व वसूलता, उन गांवों में उसका रूआब रुतबा हुआ करता, किन्तु उस राजस्व का बड़ा हिस्सा तय रकम के हिसाब से बीकानेर के राजा को देना होता। उसे रेख की रकम कहा जाता।
राज्य में पट्टे में गांव देने का चलन ऐसा माना जाता है कि महाराजा सूरसिंह के समय में प्रारंभ हो गया था। सन् 1625 के लगभग पट्टा प्रणाली प्रारंभ हुई। प्रथम पट्टा बही संवत 1682 की प्राप्त होती है।
गांव के सामंत ( जागीरदार ) के पट्टे में यह विवरण लिखा होता था कि प्रथम बार यह पट्टा उसके किस पूर्वज को कब दिया गया था। अब वर्तमान जागीरदार को यह कितने असवारों की चाकरी के बदले दिया जा रहा है, अर्थात चार गांव पट्टे में दिए गए हैं तो जागीरदार के चार पुरुषों को सेना में चाकरी करनी पड़ेगी। पट्टेदार महाराजा ने महरबानी कर यह पट्टा दिया है, इसलिए हमेशा सामधरमी ( स्वामी भक्ति ) का पालन करना होगा। पट्टेदार को पट्टा देते समय निर्धारित राशि पेशकसी के रूप में देनी पड़ती थी। पट्टे में उल्लेख रहता था कि अपने गांवों के वासिंदों के साथ पट्टेदार किसी भांति का जिला बाथरा ( झगड़ा-फसाद) नहीं करेगा, उनकी पीठ (वरद हस्त) रखेगा। रैयत का आवा दीन ( मान सम्मान) रखना है। ऐसी हिदायतों के उल्लेख पट्टे में रहा करते। उपरोक्त हिदायतों का पालन न करने पर पट्टा तागीर ( छीन/ बर्खास्त) कर दिया जाता। पट्टा छिन जाने पर ठाकुर की कोई इज्जत नहीं रहती।
श्रीडूंगरगढ़ के दोनों गांवों रूपालसर तथा सारसू के पट्टे कई बार तागीर किए गए। इसी तरह और भी कई गांवों के पट्टे उतार लेने का उल्लेख मिलता है। जिस गांव का पट्टा उतार लिया जाता, उस गांव को खालसे का गांव कहा जाता।

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