





श्रीडूंगरगढ़ लाइव…04 फ़रवरी 2023 ।प्रिय पाठकां,
श्रीडूंगरगढ़ रा मानीजेड़ा अर लोकलाडला साहित्यकार “सत्यदीपजी” आपणै सागै रोजीनां मारवाड़ी में बतावळ करसी।
अनित्य कद सुख हुवै
सुख नै ढूंढणै,सुख नै भोगणै अर सुख नै सांवट जाबतै सूं राखणै में आखी जगती खपै। सुख हुवै बगती बिरखा रो पाणी। पाणी नै मुठ्ठी में पकड़नै नै चावै किता ही हिचकल्यो, दिसै पण मुठ्ठी में कद आवै। ओ ही सुख सारु रचाव दिसै। सुख, सुख अर सुख। इण सारु ताफड़ा तोड़तो जीव आखी उमर बिलोवणै रै झेरणै री जेवड़ी री गळाई आगै -लारै भूंवीजै, रगड़ीजै पण बख में तो आवै बट उधड़नो।
माखण नांव री चीज तो चाडै में लुकी रेवै।
संस्कृत साहित्य में एक नीति श्लोक आवै है।
इक्षुवद विरसाः सेविताः स्युः परे रसाः।
सेवितस्तु रसः शान्तःसरसः स्यात् परम्।।
जद जीव सुवाद में आछो-भलो चिपै अर उपभोग सूं भोग री वृती रो पल्लो झाल आंख मींच गैल होज्यावै तो पछै बो मांयली लालसा सूं पिंड को छुडा पावै नीं। गंडक रै मुंहडै हाड री गळाई भोग अर बासना दांतां
सू जद चिबळै तो खुद री राफ्यां रो लोही ही उणनै जिंया सुवाद देवै, बा ही गत जीव री संसारी भोग रो सुवाद सुख देवै। ग्यानी पुरख गुळसंटै रै भानै आ ही बात समझावै। रस सूं भर्यै गुळसंटै नै जद चूसां तो उणरो रस एकरसी तो मीठो अर जी स्सोरो करतो लखावै। सुख भी दरसावै पण थोड़ै बगत पछै रस चूस्यां पछै लारै बचै,छूंतका जका नै जै चीबळां तो राफां अर मसूड़ा ही छुलै पण आ जकी भोग री बृति जीव नै काठी झाली राखै ,बा आसकति छुटै कोनी। ओ ही दुख रो मूळ कारण हुवै।
जाणा हां, कै संसार रा सगळा सुख पतळै काच रा बरतण है। ए हाथां सूं तिसळणा है। फूटनै बिखरणा है। किरच-किरच खिंड परा चुभणा है। पण सुख पावणै री एसणा उणनै तेली रै बळदियै भांत भुंवायो राखै आखी जिंदगी।
पावणै री खेबी अर जावणै रो संताप दोवूं दुखदायी हुवै। मुगति रो मारग ढूंढ्यो ही नीं दिसै, बस भागतो अर तड़फा तोड़तो जूंण गमावै। आ बात साफ है, कै जगती रै सुखां रो भोग सदा अनित्य अर दुख देवणो हुवै ।अठै जाणनै अर पिछाणनै री चीज तो आ हुवै, कै ताकड़ी नै संतुलन में साध परी
जीव भोग सूं मुगती अर योग सूं संजोग करणै रा भाव धारण करै। जद भावां रो बंधाण जीव बांधै अर खुद नै साधै तो सांगोपांग सांयतरस उणनै मिलै। सांयत रस ही कल्याण कारी हुवै आ सतपुरखां री नीती सिखावै।गीता में इण सारु भगवान श्रीकृष्ण भी आ साथ बतावै अरज नै –
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विंदत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।
ऊँ आनंद
सत्यदीप










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